पर अब शायद मैं वह नहीं हूं
जो ढूंढता था आसमां में सपने
और देखता था परायों में भी अपने
रेत से घर बनाता था
और कागज की कश्ती भी बारिश के पानी में चलाता था
पर अब शायद मैं वो नहीं हूं
पापा की उंगली पकड़कर उनकी कहानियों में खो जाता था
मां की ममता के आंचल में रोज आकर सो जाता था
भाई का प्यार और मार मुझे आज भी याद है
बहन की नसीहतों का आज भी जुबां पर स्वाद है
पर अब शायद मैं वो नहीं हूं
ना कोई चिंता थी ना कोई दुख था
अपनी ही धुन में रहने का अलग सुख था
दोस्तों के कहकहे थे और हंसी के फव्वारे थे
और हमने भी किसी से किये आंखों में इशारे थे
पर अब शायद मैं वो नहीं हूं
आज आसमां भी है रेत भी है कश्तियां भी है परिवार भी है दोस्त भी हैं
बस मायने बदल गए है
जिंदगी की भाग दौड़ में हम खुद ही कहीं खो गए हैं
आज दिल में डर है दिमाग में चिंता है
आंखों में आंसू हैं और लबों पर मुस्कुराहट भी अब नहीं जिंदा है
पर अब शायद मैं वो नहीं हूं
पर मन करता है क्यों ना फिर से बचपन जिया जाए
बेवजह के गमों को खुद से दूर किया जाए
फिर से वही अपनी धुन और जिंदगी का राग होगा
माथे पर ना शिकन होगी और अपनों का साथ होगा
तब लगेगा मुझे हां अब मैं सही हूं
और तब मैं खुद से कह सकता हूं
मैं फिर से वही हूं मैं फिर से वही हूं
सुंदर अभिव्यक्त किया है 👌🏼
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धन्यवाद अनिता जी
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